ऐसी है वो मजदूर औरत
ऐसी है वो मजदूर औरत
सड़क के किनारे पर बैठी
वह मजदूर औरत
जिसे मैं जब भी देखता हूँ
हमेशा ही उसे पत्थरों
के बीच घिरा पाता हूँ
जो सुबह से शाम तक
चिलचिलाती धूप में हर दिन
तोड़ती है पत्थर
दोपहर हो या शाम
उसके हाथों की गति नहीं रूकती
फटे पुराने कपड़ों में लिपटी
पूरे जोश के साथ लगी रहती है
अपने काम पर
काम ही तो उसका कर्म है
जिसे सहारे वह पेट पालती है
अपने परिवार का
सारा दिन काम कर
जब उसे उसकी
मेहनत का फल मिलता है
अजीब से मुस्कान होती है चेहरे पर
ऐसी है वो मजदूर औरत।