रूह इंसानियत की
रूह इंसानियत की
गगन में जो ये उड़ते परिंदे हैं
ये भी धरती के ही बाशिंदे हैं।
है जो फक्र हमें इतना इंसान होने का
कि हम तो खुदा के अव्वल कारिंदे हैं।
खाक में फिर यूँ मिला रहे जो आशियाना इनका
क्या अपनी ख्वाहिशों के आगे हम इतने शर्मिंदे है।
'जिंदगी 'मर रही रूह इंसानियत की
जिस्म में अब क्या सिर्फ इंसान जिंदे हैं।
