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सुरभि शर्मा

Others

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सुरभि शर्मा

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पीहर

पीहर

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जहाँ सुबह उठने के लिए

किसी अलार्म की जरूरत नहीं

हँसते गुनगुनाते कट जाता है दिन पूरा

किसी पल थकने की आदत नहीं


जिन्दगी का हर लम्हा फिर से 

गुलजार लगता है 

खोया जो ख्वाब था बचपन का 

फिर से आँखों में जगता है 


रूखे हो चुके स्वभाव में 

खुद ब खुद वापस 

खो चुकी मिठास आ जाती है 

माना हो चुकी परायी यहाँ 

पर गली मोहल्ले, नाते रिश्ते 

घर की दीवारों में 

अपनेपन की छाँव दिखती है 


जो बातें दिल में रख चुकी 

अब किसी से बोलना नहीं चाहती 

खुशी, गम के कुछ अनजाने साथी के 

जो राज खोलना नहीं चाहती 


उन गिरहों को भी कोई न कोई 

खोलने चल देता है 

और फिर मन बेकाबू होकर 

सबसे सब कुछ बोलने चल देता है 


जाने कहाँ खो गयी मेरी वो प्यारी चिड़ियाँ, और गिलहरी 

जो छत पर मेरे हाथ डाले हुए दानों को चुगने आया करती थी 

बेगानी होकर भी मुझे इतनी अपनी लगती थी वे की 

मैं दिल की हर बात उनसे कह जाया करती थी 


बुआ, दीदी, बेटी इन सब पुकारे जाने वाले पहचानो में 

हर पल, हर क्षण, हर लम्हा जाने कैसे बीत जाता है 

पता भी नहीं चलता और सिर पर घूँघट डाले, 

आँचल में चावलों का खोएँचा लिए, नम आँखों के साथ 

मायके का आशीर्वाद और प्यार हमेशा सिर पर बनाए रखना की दुआ करते 

एक बेटी पर दो कुल की लक्ष्मी 

चल देती है अपने कर्तव्य का निर्वाह करने 

अपने घरौंदे की और वापस!!!! 



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