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Amar Nigam

Abstract

3  

Amar Nigam

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शहर में अब मन नहीं लगता

शहर में अब मन नहीं लगता

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शहर में अब मन नहीं लगता

अब बस घर लौट जाने

को जी चाहता है,


इस शहर की गलियों में

अब मन नहीं लगता,

शहर की गलियों की चमक दमक से

अब फर्क नहीं पड़ता,

इस शहर में अब मन नहीं लगता।


हर गली में अंधेरा का बसेरा लगता है,

मतलबियों का जमेड़ा लगता है,

हर तरफ शोर और धुआं लगता है,

इस शहर में अब मन नहीं लगता।


हर तरफ कांक्रीट के जंगल दिखाई पड़ते हैं,

धूल की चादर ओढ़े पेड़ दिखाई पड़ते हैं,

पेड़ की छांव ढूढ़ने का भी अब मन नहीं करता,

इस शहर में अब मन नही लगता।


मशीनों के शोर के बीच,

चिड़ियों की चहचहाहट

अब सुनाई नही पड़ती,

खुद की अंदर की,


सुगबुगाहट अब जान नहीं पड़ती

खुद को तराशने में भी

अब मन नहीं लगता,

इस शहर में अब मन नहीं लगता।


माया के जाल में फंसे

चूहे दिन रात दौड़ा करते हैं,

खुद के अहंकार की पूर्ति

दिन रात करा करते हैं,


घनी काली सर्द रात में भी

अब दूसरे का दामन दिखाई नहीं पड़ता,

इस शहर में अब मन नहीं लगता,

इस शहर में अब मन नही लगता।


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