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Amar Nigam

Abstract

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Amar Nigam

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कुछ तो रही होंगी मजबूरियाँ

कुछ तो रही होंगी मजबूरियाँ

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कुछ तो रही होंगी मजबूरियाँ तुम्हारी

जो एक हंसी में तू अपना गम छुपा रहा होगा,

चेहरे पे एक नकाब लगा रहा होगा

पर तेरी आंखों में सब दिख रहा होगा।


कुछ तो रही होंगी मजबूरियाँ तुम्हारी

जो वक़्त को बदलने के लिए वक़्त से लड़ रहा होगा,

गैर जरूरी चीज़ों को भुला रहा होगा,

कुछ किस्सों को मिटा रहा होगा।


कुछ तो रही होंगी मजबूरियाँ तुम्हारी

अपना जहां छोड़ के

वास्तविकता को तू अपना रहा होगा,

पल पल कदम सोच सोच के तू आगे बढ़ा रहा होगा।


कुछ तो रही होंगी मजबूरियाँ तुम्हारी

जो किस्मत को ही हकीकत मान रहा होगा,

खुद को अब तू जान रहा होगा,

सब कुछ सच मान तू उसको अपना रहा होगा

कुछ तो रही होंगी मजबूरियाँ तुम्हारी।


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