अहम सत्य
अहम सत्य
इक दिन जाने क्या अहसास जगा,
प्रकृति में नया इक राग जगा
मैं बैठा था अपनी छत पर,
कुछ लिख रहा था इक कागज पर
तब होले से चल दी पुरवाई,
मन में लगी बजने शहनाई
हजारों चिड़ियां चहक उठीं,
फूलों की लड़ियां महक उठीं
आकाश में बादल घिर आये,
पपिहा बोला प्यायें प्यायें
पक्षी लौट रहे थे अपने घर,
मैं अब भी बैठा था छत पर
तभी कोयल ने कूक लगाई,
फिर जाने कैसी याद आई
जो आ रहा था मुझे आनंद,
बोझिल आंखों में हो गया मंद
लौटते पक्षियों को जब देखा,
मन में खिंच गई इक गम रेखा
ए इंसान भी तो इक पक्षी है,
दुनिया यह कितनी अच्छी है
जहां लोग मिलते बिछड़ते हैं,
संग रहना फिर भी झगड़ते हैं
माहौल यहां का है गंदा,
इंसान से बेहतर परिंदा
परवाह न जिसे जमाने की,
ना रोने की ना ही गाने की
और यह मृत्यु लोक कितना प्यारा,
सारी श्रृष्टि मे है न्यारा
पर मृत्यु यहां पर निश्चित है,
यह सत्य सर्वदा विदित है
जो आया है वो जायेगा,
कोई शेष नहीं रह पायेगा
कब तक करेगा रखवाली,
रह जायेगा ये पिंजरा खाली
इक दिन सबको उड़ जाना है,
फिर लौट यहां न आना है
पारस यह कैसी चिंता है,
जब निश्चय ही जलनी चिता है
आखिर क्यों उससे डरता है,
बिन चिंता क्यों न मरता है
बिन चिंता क्यों न मरता है।
