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kavi sharda tiwari

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कविता मन की वेदना

कविता मन की वेदना

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जब जागृत होती हृदय में,

       उच्च कोटि संवेदना।

तब बनकर चिंगारी निकलती,

      कविता मन की वेदना।।


जब चहुं ओर अंधेरा छाये,

      अपना पराया नजर न आये।

अनजाना डर मन में समाये,

       अनहोनी से दिल घबराये।।

जब सच और झूठ का,

       समझ में आता भेद ना।

तब सच को उजागर करती,

       कविता मन की वेदना।।


जब अन्याय सबल हो जाये,

      न्यायाधीश कहीं खो जाये।

कहीं कोई वो नजर न आये,

      जो हमारे दुःख हर जाये।।

जब पथ मे कांटे बिखराकर,

        माने कोई खेद ना।

तब उन कांटों में पुष्प उगाती,

       कविता मन की वेदना।।


जब मानव पर हो दानव भारी,

      मारे मारे फिरें पुजारी।

हर तरफ हो जब अत्याचारी,

      डर डर कर जियें नर नारी।।

जब अधरम हो धर्म पर भारी,

       बांचे कोई वेद ना।

पारस तब नव वेद रचाती,

      कविता मन की वेदना।।

पारस तब नव वेद रचाती,

       कविता मन की वेदना।।



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