माँ की ममता
माँ की ममता
सुबह सबेरे चौबारे पर
आस्था का एक दीया
रख गीले बालों में बाँध
अपनी सारी तकलीफ़ें
घर के जाले में उलझी
पेट की अग्नि के ताने बाने
मसालों से बुनती
स्वाद के तार जोड़ती
पसीने की बूँदें छुपाती
सफ़ाई देती ,करती बहाना
शायद बी पी का बढ़ जाना है
सब समझता हूँ माँ !
कैसे कह दूँ तुझसे
घड़ी भर बैठ जाती
तो क्या हो जाता
चुन लेती घड़ी की
सुइयाँ, चंद खुद के लिये भी
नित्यकर्मो की अंतहीन क़िस्से
बहा कर धुलें कपड़ों के हिस्सों से
चंद धूप के टुकड़ों को सेंकती
तुझे देखा है माँ !
कैसे कह दूँ तुझसे
कितनी भोली है तू
झाड़ू के ग़ुबार में
कब तक उड़ाती रहोगी
मन के उदगार माँ !