सुनो कठपुतलियों
सुनो कठपुतलियों


सुनो मौनी औरत !
यह जो तुमने
अखण्ड मौन धारण किया है
अर्थ तो जानती हो ना इसका ?
अभी
शर्मो-हया
और संस्कारों के हवाले
चुप हो तुम
गाड़ी चलती रहे पटरी परयेन-केन-प्रकारेण
यही मंतव्य है तुम्हारा
इसी हेतु तुम मन से अहिल्या
और आंखों से गांधारी बनी बैठी हो
पर अब वक्त बदल गया है सुवर्णा
तुम्हारा यह मौन
धीरे-धीरे बन जाएगा
तुम्हारी नीयति
तुम्हारा अबोला और सहनशक्ति
हो जाएगी शुमार
हमलावरों के
मौलिक अधिकारों में
फिर नहीं कर पाओगी
प्रतिरोध
बोलना वर्जनीय होगा तब
तुम्हारे लिए
बसबसीज कर रोती
अगर हार गई कभी खुद से
और जाने-अनजाने कुछ कह बैठी
तो न जाने कितनी उपाधियों से
नवाजा जाए तुझे
और तुम्हारी आवाज को
निकलते पंख रूप गिना जाए
क्योंकि तुम्हारा सामना
सिर्फ पुरुष सत्ता से नहीं,
>तुम्हारी अपनी जाति
औरत से भी जूझना है तुझे
क्योंकि वह भूल चुकी है
अपना कल।
इसके इंद्रधनुषी रंग को
तो जानती हो न तुम ?
पुतलीघर की कठपुतलियों-सी
नर्तन करती है संवेदनाएं
आंख में पानी नहीं है शेष अब
सुनो रेशमा !
छोड़ो यह रेशम व्यवहार
जागो !
देखो !
समय तुम्हें बुला रहा है
जीने के लिए
और जानती ही हो तुम
जीने के लिए मुखर होना पड़ता है
वरना जमाना
गिन लेता है बंद मुँह के दांत
सुनो धरा !
अपनी भीतर की आग को
यूं रुस्वा न होने दो
उसे अपना वजूद न खोने दो
देखो,
तुम्हारा मौन
द्विगुणित होकर
खा रहा है घड़ी की सुईयांअपने स्त्रीत्व को
लज्जित न करो मंगला
अब तुम्हारे बोलने से ही होगा मंगल।
देखो !
अंधेरे की कोख में बैठा उजाला
तुम्हें बुला रहा है।