सुन रे बसंत !
सुन रे बसंत !
बसंत!
ओ बसंत!!
थोड़ा-सा मुझ को भी
महका दे ना
अपने स्नेह की ऊष्मा से,
क्या पता हरिया जाऊँ
तेरी
मुस्कान के स्पर्श से,
खिल आए कोई कोपल
तेरे नेह की खाद से,
प्रीत के उजास से
लहलहा जाए
यह बंजर मन शायद,
प्यार की पुरवाई की
रूहानी संगत तेरी
दे दे अर्थ कोई
मेरे होने को..
आ रे बसंत यहां !!
आसमां में पंछी
किलक कर पलटी मार
उड़ते हैं
और तुझे बधा कर
स्वागत करते हैं
आ जा रे बसंत तू
ताकि
काली पड़
कुम्हलाती
टूटती
झड़ती
बिखरती बेल में
जग आए
कोई आस-उम्मीद
और बसंत -बहार गाए भौरे
शायद
इस देहरी की
सूनी थलवट पर भी
कोई राग
कोई तराना
पड़ जाए
किटी से ठट्ठाते कानों में
और मन कोयलिया
फिर कोई राग उगेरे !
