तुम्हारी शीलता के नाम
तुम्हारी शीलता के नाम
तुम
लहर-सी लपकती
बिजली-सी कौंध जाती हो
तन-मन में,
समा जाना चाहता हूँ
तुझमें
या फिर तुझको विलोपना चाहता है मन
खुद में...
मुंदने लगती है पलकें
बालों में चलती
तुम्हारी अंगुलियों की छुअन पा,
भारी हो जाती है सांसें/
कसने लगते हैं
भुजबंध स्वतः ही,
पौर-पौर हो उठता है तरंगित
खुलने लगता है अंग-अंग....
तब लचकी हुई लता
लिपट जाती है
तने से
कस कर ।
तेज
और तेज होती
बदन की लर्जिश,
भीगते-कसते होंठ
सख्त होते उरोज
पिघलाने लगते हैं दरिया की आग
तड़प बढ़ा देती है
साँसों की चाल,
खालीपन भरने को व्याकुल किनारे
सिमट कर हो जाते हैं एक
बह निकलते हैं धारे
थिरकती अंगुलियों से
तन के कैनवास पर
न जानें कितने रंग
हो जाते हैं गड्ड-मड्ड,
जादू के अनगिन वितान
नापते-जोखते गहराई में समा
हो पड़ते हैं आकारित
उफ्फ!
न जाने कैसे-कैसे मचलती है
मछरिया
तुम!
बस तुम ही होते हो तब,
एक लय
एक रिदम
कैसे आ जाती है तब
ओ मेरी सरगम !
आओ !
छा जाओ बदरिया
रुको मत
ठहरो मत
तेज
बस तेज
और तेज बरसो,
हो जाने दो निढाल
बिछ जाने दो मुझे
बेसुध होकर
खो जाने दो मेरी चेतना
प्रेम से दीप्त-आलोकित इस लौ में
देखो!
प्रकृति ने भी
सांध्य घूंघट ओढ़ लिया!