सूरज को शास्त्र कौन समझाए
सूरज को शास्त्र कौन समझाए
हाँ !
मैं रात,
जाने कितने सपने बुन गई
एक ही रात में।
सूरज
भूल गया उगना
और सोया रहा,
रात की आगोश में,
गलबहियां डाले
पूरी रात।
महकता रहा
रात रानी-सा,
सकुचाता-सहमता छूता रहा,
रजनी के पुष्प-सौरभ
और बहकता-झूलता रहा
अनजानी पगडंडियों पर
रात की धुन में।
पर समय भला कैसे ठहरता
बाहर दूर कहीं
कोई मासूम चिड़िया चहकी
और सूरज
जैसे बिसर गया
रात की हर बात,
रात की झूमती राग।
कुलबुलाता
आंखें मसलता रहा
अबोध बच्चे की तरह !
लगाता रहा एक ही रट-
लौट आओ निशा
अभी सुस्ता लेने दो मुझे,
जीने दो जी भर।
उधर रात
सुबकती रही देहरी पर
नव-ब्याहता की विदाई-सी रुलाई लिए।
अब सूरज को
शास्त्र कौन समझाए?