तलब
तलब
ये आंखें
सृष्टि का एक पूरा वितान
जैसे खुद में समेटे
बुन रही है
सम्वेदना के क्रोशिए से
अभिव्यक्त का स्वेटर
ये लरज-लरज
खुलते-भिड़ते होठ
न जाने
कितनी कथाओं को
मौन में
गुनगुना लेते हैं,
ये फिर-फिर लहराता
बाल संवारता बायां हाथ
जैसे प्रीत की रीत संभाले
मेरे होने की पहेली
सुलझाता रहता है
और यह सुराहीदार गर्दन
अहसासों की औस में
समेट लेती है
कस कर
मेरी गलबहियां
और तब मैं
जागते हुए भी
नींद का बहाना कर
सोते रहना चाहता हूँ
चाहत के जीने पर चढ़
आसमां के चाँद को
छूने की कोशिश में।