प्रतिबिंब
प्रतिबिंब
लहरों को देखा है कभी ?
ऊँचीं उठती, उमँगो से भरी,
इँसान के ख्वाबों की तरह,
सीमा-बंधन कुछ भी नहीं।
ऊँचा उठने की होड़ यूँ मची,
नींव न बनना चाहे कोई।
बीच भँवर में फँस न जाना,
लहर-लहर संग जुड़ते रहना।
लहराए-घनघनाए हर उछाल पर,
जोशीले इरादें होती है उफ़ान पर,
बुद्धी न कर पाती है अवलोकन,
रहना मेरे यार जरा संभल कर।
सीप में बंधकर न रहना,
सुनहरी धूप में मोती बिखेरना,
हर बूँद में मिलकर तुम,
किनारों पर खुशियों के प्रतिबिंब बनाना।
