मैं भी 'आसिफा '
मैं भी 'आसिफा '
हो सकता है एक दिन,
मैं अपनी भेड़ें चराते,
किसी मंदिर के पीछे वाले मैदान पे मिलूं,
और भेड़िये दबोच लें मुझको,
हो सकता है मुझ पर,
किसी मौलवी की नापाक नज़र बरसे,
और मदरसे में एक नयी तरह की शिक्षा मिले,
हो सकता है जीसस की तलाश में,
नन बनूँ मगर वो रास्ता किसी,
बैप्टिजम से होकर गुज़रे,
जो मुझे मंज़ूर न हो,
मंदिर, मस्जिद, चर्च तो जाने दीजिये,
लोकल ट्रैन, पब्लिक ट्रांसपोर्ट,
टैक्सी, कैब, गार्डन, रैली,
रेलवे कम्पार्टमेंट, पटरियाँ,
मॉल पार्किंग, स्कूल, कॉलेज,
वगैरह वगैरह और घरों में भी,
है ना ?
मैं पर्क की टैग लाइन को,
जी रही हूँ शायद,
'कभी भी कहीं भी'
लेकिन मुझे किसी से कोई गिला शिक़वा नहीं है,
मैंने एक बात को मान लिया है,
मैं खिलौना थी हमेशा से,
और शायद हमेशा रहूंगी
वो धीरे-धीरे हैवान से इंसान बन रहे हैं शायद,
जानते हैं कैसे ?
आजकल रेप करके वो मुझे जान से मार देते हैं,
फुल एंड फाइनल हिसाब होने लगा है,
पुरानी दकियानूसी तरकीबें नहीं,
के ज़िंदा छोड़े जा रहा हूँ,
४ दिन बाद फिर आऊँगा,
पहले रेप शोवनिजम,
साबित करने के लिए होता था,
आजकल पोलिटिकल कोंसपाइरेसी,
के लिए होने लगा है,
पहले इंपलेसिव थी,
अब प्रिमिडिटेड है,
पहले अंकंट्रोलड ठरक थी,
अब कंट्रोलड नज़र है,
नहीं नहीं,
मैं कोई इसका ग्रोथ चार्ट,
नहीं दिखाना चाहती ,
बस ये बताना चाहती हूँ
अपराध धीरे-धीरे शौक़,
शौक़ धीरे-धीरे ज़रूरत,
ज़रूरत धीरे-धीरे पेशा,
और पेशा एक आर्गनाइज्ड सेक्टर बन रहा है,
मैं नहीं चाहती के आप लोग जागिये,
सड़कों पर कैंडिल मार्च कीजिये,
क्रांति का बिगुल फूँकिए,
क्यों की ये सब आपने पहले भी किया है,
और सोये हुओं को जगाया जा सकता है,
लेकिन भ्रम में जीने वालों को नहीं,
आपकी आँखें जागी हुई हैं,
लेकिन आपने आसपास,
एक ऐसा घेरा बना रखा है,
जो सिर्फ तब टूटता है,
उसकी हदों में उसकी ज़ङों में कुछ हो,
लेकिन जब वो घेरा टूटेगा,
और आप उसके बाहर निकलोगे
सबको जगाने की कोशिश करोगे,
झकझोरोगे, चिल्लाओगे और तब पाओगें
के आपकी जैसे सबने,
एक घेरे में जीने की आदत डाल ली है
उस दिन सिर्फ आप होंगे,
और मेरे जैसी कोई 'आसिफा'
