मैं ऐसा हीं हूँ
मैं ऐसा हीं हूँ
गुमसुम सा रहता हूँ, चुप-चुप सा रहता हूँ
लोग मेरी चुप्पी को मेरा गुरूर समझते है
भीड़ में भी मैं तन्हा सा रहता हूँ
मेरे अकेलेपन को देख मुझे मगरूर समझते हैं
अपने-पराये में मैं घुल नहीं सकता
मैं दाग हूँ ज़िद्दी बस धूल नहीं सकता
मैं शांत जल सा हूँ बड़े राज़ गहरे है
बहुरूपिये यहाँ सब बड़े मासूम चेहरे है
झूठी हंसी हँसना आता नहीं मुझे
आँसू कभी निकले परवाह नहीं मुझे
कोई कहेगा क्या ये सोचना है क्यों
फिजूल बातों से भला डरूँ मैं क्यों
ख़ुशामदी करना आदत नहीं मेरी
जंच जाऊँ नज़रों को चाहत नहीं मेरी
कोई साथ दे मेरा मैं क्यूँ भला सोचूँ
कोई हाथ दे अपना मैं आस क्यूँ रखू
नहीं मुझको शिकायत क्यों सब नाराज़ है मुझसे
क्यों अपनी उम्मीदों का है उनको आसरा मुझसे
जैसा भी मैं हूँ बस अपने ही दम पर हूँ
खड़ा किया है खुद को खुद अपना स्तंभ भी हूँ।
