मायके से ससुराल
मायके से ससुराल
छोड़ अपना घर आयी हूं
पर फिर भी मैं पराई हूं
किस घर को मै अपना मानू
ये अब तक समझ न पाई हूं।
जन्म लिया मैंने कहीं पर
पली बढ़ी मै वहीं पर
एक एक रिश्ते को जिया जी भर कर
मां- बाबा से बातें करी बड़ - चड़ कर
भाई - बहन के साथ
शैतानी करी पल - पल।
एक दिन आया मैं हो गई बेगानी
बेटी से बन गई बहु रानी
मायका छूटा ससुराल मिला
नए रिश्ते बने नए तरीके बने
पर एक घर आज तक न मिला।
सब कुछ कर लो जी जान लुटा दो
अपना घर है बस मान सब करते जाओ
पर दिल ही दिल में हक जताने से कतराओ
तो फिर कैसा अपनापन ?
जब अपने ही घर को न
कह सकते अपना हम।
मायका जाने में दस बार सोचूँ
जिन गलियारों से आयी थी
अब उनको अपना कहने में संकोच करूँ
जहां हूं वहां सभ्यता का दायरा ओढ़ कर बैठूँ
कुछ मन की करें तो" सुनने को मिले"
ये नही है तुम्हारा घर
अपनेपन में भी एक
परायापन छुपा है
सब रिश्तों के बीच में भी
एक अकेलापन छुपा है
स्त्री जीवन के अंतर्मन में भी
एक बरसों से एक सवाल छुपा है
छोड़ अपना घर आई हूं
फिर भी मैं पराई हूं।