लोकतंत्र बेहाल बहुत है
लोकतंत्र बेहाल बहुत है
जीवन सारा बीत गया फूटी गागर भरते-भरते
श्याम हो गई उजली चादर कालापन हरते-हरते।
बिछे हुये शूलों की गिनती को क्या बतलायें हम
सुबह से ले शाम हो गई झूठ को सच करते-करते।
कागज जस हुई जिन्दगी तूफानों से लड़ते-लड़ते
उपवन उदास मन से देखे सुमनों को झरते-झरते।
लोकतंत्र बेहाल बहुत है किसको व्यथा सुनायें
जीना हुआ मुहाल बहुत है जीते हम डरते-डरते।।
