लिपटे नज़ारे नजरो के सामने
लिपटे नज़ारे नजरो के सामने
जिस क्षण में निरंकुश हुआ दिल
तुम निकल गए असार समझ के
निश्चलता तुम्हे भाया ना
निगल गए तुम मुझे निष्प्राण समझ के
कुचल कर रौंद डाला एहसास मेरे
और कहते हो मुझमें सहजता कहां
मुड़ के देखा जो तुझे एक दफा
तुम थे खड़े किसी गैर के बाजुओं से लिपटे
परिपक्व है यहां सब लोग
तुम मुझे यूं ही कुचलते रहे सहज समझ के
अदब करने की गुस्ताखी क्या कर दी मैंने
जो लिपटे रहे तुम नज़रों के सामने
तुम तो मुझे ही कुचलते रहे लाचार समझ के।।।