मकाम हैं हम
मकाम हैं हम
ख़ुद को चारदीवारी में कैद कर रखा है,
और कहते हैं आज़ाद हैं हम,
इस जहाँ से उस जहां तक कि ख़बर है,
और कहते हैं बेख़बर हैं हम,
आहटों तक कोई परिंदा भी ना पहुँचता है,
और कहते हैं बेहद खुश हैं हम,
एक उम्र से अकेलेपन को समेटे हुए है,
और कहते हैं खुशकिस्मत हैं हम,
कोई तो उनके तह तक पहुँच सके कभी,
पर कहते हैं खुला आसमां हैं हम,
ये सिलसिला जारी है पर सिलवटें ना पड़ी,
और कहते हैं ठहरो अभी नींद में हैं हम,
कितने अहसास सीने में दफन कर रखा है,
पर कहते हैं खुली किताब हैं हम,
खामोशी में मुस्कुराते कितने दर्द छुपाते हैं,
और कहते सहर के आफ़ताब हैं हम,
एक उम्मीद बाकी नहीं रही तरानों के ख़ातिर,
और कहते हैं एक ऊंची उड़ान है हम,
सफर जाने कितने पर मंजिल एक भी नहीं,
और कहते हैं सुकूँ-ए-मकाम है हम।।