कविता
कविता
इक नन्ही सी बच्ची
उछलती फुदकती
गली और आंगन
मस्ती में डोलती
सपनों में रहती
सपने सजाती
हंसी बिखराती
हर मन को भाती
न जाने गया कब
बचपन सुहाना
पर सपनों का था
अब भी आना जाना
पढ़ाई -लिखाई
सिलना -सिलाना
हर काम में था
उसे अव्वल आना
फिर आया वो इक दिन
था ससुराल जाना
छूट गयी सखियां
वो बाबुल का अंगना
जो देखा था सपना
सच हो न पाया
सपने तो सपने हैं
मन को समझाया
बचपन से लेकर
देखे जो सपने
उनकी मजार पर
इक आशियाना बनाया
यादों की बस्ती को
सजाया संवारा
खामोश हसरतों ने
टूटे हुये दिल से
सपनों को अपना
बस हमसफर बनाया
नहीं जान पाई
वो नन्ही परी
सपनों का महल
रेत पर था बनाया
जमाने की लहरों ने
पल में बहाया
दिल पे न था
जमाने का जोर
फिर से सपनों को
उसने सजाया।
