इंद्रधनुष के पार
इंद्रधनुष के पार
इंद्रधनुष के पार एक जहां
कल देखा मैंने आकाश में
नदियों का जल अमृत जैसा
पहाड़ सोने से बने हुए ।
पेड़ फूल, फलों से लदे हुए
हवा से फसलें लहलहा रहीं
ऐसा लग रहा था जैसे
प्रकृति ने चादर ओढ़ा दी हो एक हरी ।
हर एक घर के बाहर बगीचा
रंग बिरंगे फूल खिले उनमें
घर के अंदर की शोभा तो
बस बताई ना जा सके ।
एक मैदान में बच्चे खेल रहे
हंसी उनकी मधुर संगीत सी
कोई पेड़ पर चढ़कर कहता
पकड़ो मुझे ऊपर आकर कोई ।
पंछी पेड़ों पर चहचहा रहे
रंग ऐसा मैंने पहले ना देखा
भगवान ने उन पक्षियों को दी
जाने कैसे ऐसी सुंदरता ।
लोग सब अपना काम कर रहे
कोई गाय को दुह रहा था
कोई सामने बैठा बंसी पर
धुन सुंदर एक छेड़ रहा वहाँ ।
दूध मथ रही कोई स्त्री और
कोई नहला रही बच्चों को
सोच रहा मैं, कितना सुंदर
प्रभु ने बनाया नगर को ।
ना कोई झगड़ा ना कोई लड़ाई
ऐसी नगरी पहले ना देखी
कोई किसी से डाह ना करे
सब मस्त बस अपने में ही ।
मंदिरों की जब घंटी बजती
कानों को सकून था मिलता
प्रेम करें सब एक दूजे से
नामों निशान ना कोई द्वेष का ।
राम राज्य था गाँव में
ऐसी जगह में रहना चाहता
हमसफ़र एक साथ में मेरे
मेरा भी एक घर हो वहाँ ।
सतरंगी इंद्रधनुष के पीछे
दुनिया के झंझट से दूर ये
परंतु ऐसी कोई जगह ना होती
ऐसी तो मिले बस सपने में ।
