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Ajay Singla

Fantasy

4  

Ajay Singla

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इंद्रधनुष के पार

इंद्रधनुष के पार

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इंद्रधनुष के पार एक जहां

कल देखा मैंने आकाश में

नदियों का जल अमृत जैसा

पहाड़ सोने से बने हुए ।


पेड़ फूल, फलों से लदे हुए

हवा से फसलें लहलहा रहीं

ऐसा लग रहा था जैसे

प्रकृति ने चादर ओढ़ा दी हो एक हरी ।


हर एक घर के बाहर बगीचा

रंग बिरंगे फूल खिले उनमें

घर के अंदर की शोभा तो

बस बताई ना जा सके ।


एक मैदान में बच्चे खेल रहे

हंसी उनकी मधुर संगीत सी

कोई पेड़ पर चढ़कर कहता

पकड़ो मुझे ऊपर आकर कोई ।


पंछी पेड़ों पर चहचहा रहे

रंग ऐसा मैंने पहले ना देखा

भगवान ने उन पक्षियों को दी

जाने कैसे ऐसी सुंदरता ।


लोग सब अपना काम कर रहे

कोई गाय को दुह रहा था

कोई सामने बैठा बंसी पर

धुन सुंदर एक छेड़ रहा वहाँ ।


दूध मथ रही कोई स्त्री और

कोई नहला रही बच्चों को

सोच रहा मैं, कितना सुंदर

प्रभु ने बनाया नगर को ।


ना कोई झगड़ा ना कोई लड़ाई

ऐसी नगरी पहले ना देखी

कोई किसी से डाह ना करे

सब मस्त बस अपने में ही ।


मंदिरों की जब घंटी बजती

कानों को सकून था मिलता

प्रेम करें सब एक दूजे से

नामों निशान ना कोई द्वेष का ।


राम राज्य था गाँव में

ऐसी जगह में रहना चाहता

हमसफ़र एक साथ में मेरे

मेरा भी एक घर हो वहाँ ।


सतरंगी इंद्रधनुष के पीछे

दुनिया के झंझट से दूर ये

परंतु ऐसी कोई जगह ना होती

ऐसी तो मिले बस सपने में ।


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