ख़्वाब मुकम्मल हो गया
ख़्वाब मुकम्मल हो गया
एक सुहानी, ख़ुशनुमा रात में
चली गई मैं अपने ख्वाबों के जहां में
काश मुझे भी कोई सुनता
काश मैं भी क़ुछ बोल पाती
उस रात ख़्वाब से यूँ मेरा राब्ता हुआ
उठाए कलम और कागज़ और लिखना शुरू किया
दिल से सारे जज़्बात कुछ अनकहे, कुछ अनसुने
कागज़ पर ऐसे उतरे, जैसे आसमां में चमकते चाँद-सितारे
ख़ुद ही लिखकर, ख़ुद को सुना रही थी मैं
फ़िर भी न जाने क्यूँ दिल से हल्का महसूस कर पा रही थी मैं
कागज़-कलम से क़ुछ ऐसा रिश्ता जुड़ा
कलम में लफ्ज़ पिरोती गई, कागज़ पे बयां हुई जुबां
फ़िर आ गई सुबह, जो हकीकत से मुझे रूबरू किया
ये तो एक खूबसूरत ख़्वाब था, जो कभी सच न होगा
जाने कैसे बेचैन हुआ मन, ख्वाबों को हुई उड़ने की चाह
पाया मैंने शेरोज़ का मंच, ख्वाबों ने लिया नया एक मोड़
उठा ली मैंने ख्वाबों की वो कलम, बना लिया मैंने अपना मन
कोशिश है अभी जारी, ख्वाबों को हकीकत में बदलने की
जो ख़्वाहिशें थी मेरी, जो एक ख़्वाब था सिरहाने में मेरे
आज वो ख़्वाब मुकम्मल हो गया...
आज वो ख़्वाब मुकम्मल हो गया...