ख़ुद को खोता हूं
ख़ुद को खोता हूं
पाकर अक्सर किसी नए शक्स
को मैं हमेशा ख़ुद को खोता हूं।
जब भर जाता है उनका मन मुझसे
तो बैठकर अक्सर ही तन्हाई में रोता हूं।
बार बार ठोकर लगी है इस दिल
को मगर क्या ही फ़र्क पड़ता है।
फिर आएगा कोई शक्स नया ज़िन्दगी में
आना जाना तो इस दुनिया में लगा रहता है।
देख कर अपनी दिल की हालत को
मन भी मेरा इस दिल से पूछता है।
के नहीं देता है जब कोई तुझे तवज्जों
फिर क्यों तू सबको तवज्जों देता है।
भागते भागते हुए तू उन लोगों के पीछे
क्यों अपने आपको पीछे छोड़ देता है।
देकर खुशियां हर किसी मिलने वाले को तू
अपने हिस्से में उन सबका गम क्यों रखता है।
खुद से होती है नफ़रत अब मुझको फिर भी
ना जाने क्यों ये दिल ख़ुदग़र्ज़ नहीं बनता है।
कद्र नहीं है अब इस दुनिया में अच्छाई की
तो भी क्यों तू अच्छा बना हुआ फिरता है।
दूसरों को देकर कंधा रोने के लिए तू
अपने आंसुओ से तकिए को भिगोता है।
बहुत हो गई है अब ये अच्छाई अब तू भी
थोड़ा मतलबी बन कर क्यों नहीं देखता है।
कुछ भी कर लूं मैं मगर फिर भी मुझसे
खुद को बुरा बनता नहीं देखा जाता है।
पाकर अक्सर किसी नए शक्स
को मैं हमेशा ख़ुद को खोता हूं।
जब भर जाता है उनका मन मुझसे
तो बैठकर अक्सर ही तन्हाई में रोता हूं।