दादी (प्रेम की उमड़ती सरिता)
दादी (प्रेम की उमड़ती सरिता)
तड़के सुबह उठ कर दो आँखे
नित्य क्रिया मे जुट जाती
प्यार बाटती घर मे इतना
खुद को बुजुर्ग वो बतलाती
समय पाबंद रखती सबको
अपने पहर की बात बताती है
कभी कभी बदलते परिवेश को देख
आंख उनकी भर आती है
किस मुद्दत से करती है जतन
कुछ भी ना व्यर्थ जाने देती
प्यार बाटती घर मे इतना
खुद को बुजुर्ग वो बतलाती
कभी स्वच्छंद उन्मुक्त पक्षी सा
देती आजादी सपनों की
और कभी समाज की,
बेड़ियों से पाव बाँधा करती
बेटे की आज भी परवाह उतनी
बहु को लक्ष्मी माने है
पर जब सास की ममता आए आगे
प्यार कुछ कम ज्यादा बट जावे है
घर से दूर ना रह पाए
इस दुनिया मे जान जिसकी बसती
प्यार बाटती घर मे इतना
खुद को बुजुर्ग वो बतलाती
करने उपचार कई मुश्किल का
कई टोटके अपनाती
बार बार एक ही काम
ना जाने क्यू दोहराती
एक तरह की बाते करके
कान सबका पकाती है
हमारे जमाने मे ऎसा था
कहकर कहानी बताती है
पल मे पुचकारती है छोटों को
पल मे गुस्से से लाल जो हो जाती
प्यार बाटती घर मे इतना
खुद कोबुजुर्ग वो बतलाती
बार बार जप नाम प्रभु का
सबकी मंगल कामना करना
और खेल बच्चों के संग
फिर से बचपन को जीना
देख पिटारे पकवानों की
इनका अब जी मचलता है
पर ना कह पाए किसी से
इनके अंदर का बच्चा डरता है
चेहरे पे झुर्री, बालों का पकना
बुढ़ापे की निशानी बताती है
प्यार बांटती घर में इतना
खुद को बुजुर्ग बतलाती है।