गिर-गिर के उठना नाम जिंदगी....
गिर-गिर के उठना नाम जिंदगी....
बदतमीज कहा मुझे,
जब मैं लड़ गई पाने को अपना अधिकार।
कहा तुझे तो शर्म नहीं,
जब लगाई ठहाके बीच बाजार।
सच कहा, नहीं रखा पर्दा, तब मुझको परखा गया।
प्रेम, भरोसा, समर्पण, मेरा कुछ भी नहीं देखा गया।
तो फिर कर इज्जत किसकी, आजादी अपनी मैं छोडूं।
गाऊँ नाचूं, अट्टहास करू, कि हर्षित आत्मा मे प्राण धरू।
अरे मुझे पूछती प्रकृति मेरी,
मेरे मनोदशा पे करवट बदलती है।
मेरे अपने शुभचिंतको की बातें,
मुझ मे शक्ति भरती है।
आ फिर तोड़ने मुझको अब,
तेरा दर्प ही तुझे रुलाएगा।
मैं लचीली मुड़ जाउंगी,
तेरा अहम् तुझे चोट दिलाएगा।
कतरो मेरे पंख लाख,
आशीष की मुझको कमी नहीं।
देंगे जान इसमें मेरा जागता "मैं",
घिरी हूँ अपनो से, कोई अनजान नहीं।
जीवन जीने के अर्थ कई,
नहीं फरक् ईन सस्ती बातों का।
गिर-गिर के उठना नाम जिंदगी,
क्या करना छोटी-छोटी तकरारो का।