खदान...
खदान...
पेट का गड्ढ़ा भरने के लिए,
वे मिट्टी में गड्ढ़ा करते है,
कोयले की खदान खोदते है,
हाथों को कालिख से मलते है।
धूप से जली हुई देह फिर,
और भी भयानक दिखती है।
जलती हुई आँखों से ढूँढ़ते है,
चमकते हुए लाखों के हीरे मज़दूरी पर।
चमकता हुआ टुकड़ा हाथ आते ही,
आँखें उसकी चमक से चमक उठती है,
और पल में जीवन भी
हीरे के समान हो जाता है,
वास्तविकता का भान भूल कर
वह भी करोड़पति बन जाता है।
सहयोगी के कोहनी मारने पर,
हड़बड़ाहट से जग जाता है,
पर कटे हुए पंछी के समान
धम्म से जमीन पर आता है।
चेहरे का अनुपम हास्य,
पल में लुप्त हो जाता है
कोयले से सने हाथ फिर
पुनः कोयला खोदने लगते है।
वास्तविकता की खदान बनकर
वह भी कोयलामय बन जाता है।