कैसी शराफ़त
कैसी शराफ़त
मैं डरती शराफ़त से तेरी
मैं डरती आदमियत से तेरी
तुम ही थे ना
जिसने झोंक डाला था
बहू को ज़िंदा आग में
चंद खनखनाते सिक्कों के लिए।
मार डाला था शंतिया के
आठ वर्षीय कमाऊपूत को
नन्हीं सी बात पर
शंतिया के 'ना' कहते ही
पिस्तौल से अपने
सुला दिया सदा के लिए
बहा दिया गंग धार में
बना लिया जबरन शंतिया को अपना।
माँ के करने पर इंकार
घर बेचने से
तुमने ही तो छीना था
उसके हक का भोजन
हमेशा के लिए
रहने लगी थी वह
अनजानों के कर-इशारों पर
वृद्धा आश्रम के पालने में
अपने बच्चों की मारी
अनगिनत माँओं की तरह।
और नहीं ढका था तुमने
शराफ़त के मुखौटे तले
अपना राक्षसी चेहरा ?
लूट ली थी
इज़्ज़त सोनवा की
रज़िया, रोजी, परमीत की
देश-विदेश की अनगिन मासूमों की
बन उनका परम हितैषी ?
कह भी तो नहीं सकती वे
माँ, बहन नहीं है क्या !
वह छाँव तुम्हारी ही थी ना
चाचा की, मामा की, भाई की
ससुर की, अपने ही पिता की ?
भागी वह वन हिरणी सहमी सी
चौकड़ी भरती घर के अंदर।
सुरक्षा घेरे में तुम्हारे
और चुपचाप तुम बिना किए शोर
बन गए हिंसक शिकारी
वह भी कर न सकी आवाज़
छुपाने को तुम्हारा
हाँ ! तुम्हारा ही पाप।
फिर तुमने ही बंद कर दिया
सौ तालों में उसे
वन में स्वतंत्र विचरण पर लगाई रोक
दे मारा माथे पर कलंक का
बड़ा सा अमिट घाव
कितने घावों को जिया उसने
फिर भी कहाँ भरा तुम्हारा बाघ-पेट।
दूसरी तरफ कहतीं 'वे सब'
बैठी रही बाजार सजाए
कि आओ पास हमारे
तुम्हारे लिए ही हम बैठे हैं
तुम्हारी गंदगी हम साफ करते हैं
चलो इसके लिए मुआफ़ करते हैं।
फिर भी
वन हिरणी को आज तुमने
चारों ओर से घेरा है
हर तरफ क्षत-विक्षत
तन है, मन है, लाशें हैं
आख़िर ये कैसा प्यार तेरा है।
तकलीफ़ नहीं, तुमने ऐसा किया
तकलीफ़ है हमेशा के लिए
तुमने ऐसा किया क्यों
कैसे कर पाए ?
आज,
हाँ, आज भी खबर पक्की है
तुमने तोड़ डाली कच्ची गगरी
इसीलिए मैं डरती
शराफ़त से तेरी
मैं डरती
आदमियत से तेरी।
काश !
तुम जानवर होते,
संतोष तो होता !
