माँ
माँ
अँचरा में बांध कर रख लेती है माँ
बच्चे की हँसी-खुशी, स्नेह,
प्यार-दुलार उसके ग़म, बुखार
डगमगाती चाल, रतजगे की सौगात
और उसकी जिद्दी रुलाई
कभी डाँटती, कभी मारती
कभी पुचकारती, बलैया लेती कभी
बलि-बलि जाती माँ
दिन और रात बन जाती है
माँ कभी भी केवल माँ नहीं रहती
वह भाई-बहन, पिता-दादा
दादी-नानी और न जाने
क्या-क्या बन
अनाम रिश्तों में जी लेती है
रह लेती जैसे-तैसे खुद
पर बच्चों को वृक्ष बनाने की
तमन्ना उसकी
कभी मुर्झा पाती नहीं
माँ केवल माँ नहीं रहती
कभी वह बहती नदी तो कभी
सागर में बदल जाती है&
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माँ तालाब नहीं, माँ पोखर नहीं
माँ बबूल नहीं, माँ चंपा नहीं
वह तो गुलमोहर-अमलतास है
नदी है, सागर है
वह वृक्ष नहीं जड़ है
पहाड़ नहीं मिट्टी है
रोपती है वह बड़े मन से
नन्हे-नन्हे बीज
पहाड़ों की ऊँचाई को भी जो
सकते है लांघ गाछ-वृक्ष बन
माँ नींद है माँ ख़्वाब है
रात्रि का जागरण आँसुओं
का सैलाब है
माँ मिट्टी है, माँ जड़ है
माँ पतझड़ नहीं बसंत है
माँ शायद
और कुछ नहीं भी नहीं
माँ तो बस माँ है
वह कुछ नहीं होकर भी
सब कुछ है
माँ तो बस माँ है !