माँ एक और रंग
माँ एक और रंग
मैंने लिखनी चाही माँ पर
एक कविता छोटी सी
माँ समा नहीं पाई
उस छोटे से कलेवर में
वह तो थी एक भरी-पूरी दुनिया
मैंने लिखना चाहा
एक सामान्य काव्य नन्हां सा
वह पूरी कायनात पर छा गई।
समेटना चाहा बहुत कम शब्दों में
शब्दों ने कर दी बगावत
माँ सिमट नहीं पाई केवल पन्नों पर
माँ अब कहीं नहीं है
ना घर में, ना आँगन में
ना गोहाल में, ना खेतों में
बगीचा, छत तक पड़ गए अकेले
ना अब रोटी में है, ना पूजा घर में
जाडे़ की उस ठंढी दुपहरिया को
अचानक सर्दिया गई बीमार माँ
हमेशा के लिए सो गई
चार गज जमीं के नीचे
अब मेरे दिल के एकदम करीब
कहीं बहुत अंदर रहती है छुपकर
चार बजे भोर में करती हुई गीता पाठ
बाँटती हुई दाने चिड़ियाँ-चिड़ों को
वह जिंदा है आज उन दानों में,
सकोरे के पानी, मीठे शक्कर में
ज़ो वह चिरई, धुर्त्त कौव्वों
चालाक चींटियों को
खिलाया-पिलाया करती थी
सच !
माँ नहीं सिमट पाई केवल पन्नों में
वह तो
पूरी कायनात पर छा गई है आज
हर एक माँ की तरह।