इश्क और जिंदगी
इश्क और जिंदगी
मैं सोचा था हमने कभी
कि ऐसा भी कभी होगा
कि किसी के पीछे
अपना है कह के रोएगा
जिंदगी दीवारों पर उभरी है
जज्बातों की लंबी सी डगर
अनगिनत मौसम आते हैं
जब चिल्लाता जज्बातों का नगर
आए दिन हमले होते हैं
जिस्म के हिस्से न हिस्से रोते हैं
हमने तो एक कई बार कहा है
ऊपर वाला देता है और हम सोते हैं
मिन्नतें की कई सितारों से
कभी दूर ना जाए यारों से
कहीं दूर न रहे नजरों से
प्यार तो होगा कुछ से ना हजारों से
हजार मंजिला इमारत दिल उसके मध्य में
मंजिलें धुंधली दिखती है
कितनी लिखूं उम्मीदें पद्य में
क्या रंग वेश का लेना
क्या उधारी क्या देना
जिस्म फरामोश हो जाता है
क्या दिलरुबा का केहना
आता है लब पे निकलकर
उभरे दिल की गहराई से
हिम्मत ए जबान नहीं चलती
कमबख्त इश्क की बुराई से
नशे हजार है
गालों पर सदाबहार है
निगाहें उन पर मेरी कहीं
मिली अगर तो इश्क की हार है
ऐसी कोई चश्मे बद्दूर
जहन्नुम जिंदगी उससे दूर
ऐसी दिलदार हो मेरी आशिकी
उतारे ना उतरे उससे गुरुर!
