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Krishnakumar Mishra

Abstract

4  

Krishnakumar Mishra

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क्या सच मे तुम आज़ाद हो?

क्या सच मे तुम आज़ाद हो?

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कह रहे हो आज़ाद हो तुम 

पर क्या सच मे तुम आज़ाद हो। 

खुद की नज़रो मे आबाद हो तुम 

पर मेरे लिए बिलकुल बर्बाद हो 


खुश होते हो बेटा होना पर तुम 

कुल का उसे दीपक कहते हो 

आती है जब घर को लक्ष्मी तुम्हारे 

क्यों तुम उदास और सहमे सहमे से रहते हो 

बेटे को उड़ने देते हो आसमान मे तुम 

बेटी को पिंजरे का तुम क्यों देते एहसास हो। 

कह रहे हो आज़ाद हो तुम 

पर क्या सच मे तुम आज़ाद हो। 


क्यों ये बेटी, बहु घर की तुम्हारे 

डरी और खोयी सी रहती है 

कहना होता है उन्हें बहुत कुछ अक्सर 

पर कुछ क्यूँ नहीं वो कहती है 

क्यूँ नहीं समझते तुम उनकी इछाओ को 

क्यों नहीं बनते उनकी आवाज़ हो 

कह रहे हो आज़ाद हो तुम 

पर क्या सच मे तुम आज़ाद हो। 


खा रहे हो घर मे बैठ कर तुम, पकवान ढेर सारे 

वही पास कोई बेघर है बैठा, माँ को अपनी है पुकारे 

क्यों नहीं बनते तुम उनका सहारा 

क्यों नहीं सुनते तुम उनकी फ़रियाद हो 

कह रहे हो आज़ाद हो तुम 

पर क्या सच मे तुम आज़ाद हो। 


लड़ना हो तुम्हे धर्म के नाम पर 

तब अलग सा जोश तुम खुद मे ले आते हो 

आती है जब बारी देश सेवा की 

तब कहा जाकर तुम छिप जाते हो 

कर रहे हो बर्बाद जिस देश को तुम 

कहते हो हर लम्हा तुम उसके साथ हो 

कह रहे हो आज़ाद हो तुम 

पर क्या सच मे तुम आज़ाद हो। 


आता नहीं कोई मदत को तुम्हारी 

दर्द मे हो तब तुम चिलाते हो 

हो अगर जो वोही दर्द किसी और का 

देख उसे खुश होते हो तुम और मुस्कुराते हो 

है नहीं इंसानियत तुम मे 

नहीं दीखते इंसानों की तुम जात हो 

कह रहे हो आज़ाद हो तुम 

पर क्या सच मे तुम आज़ाद हो। 


जिन माँ बाप ने ना समझ होने पर तुम्हे है पाला 

उनको ही समझदार होने पर घर से तुमने है निकाला 

पूजते हो मंदिरो के ईश्वरो को तुम 

नहीं पहचानते उन्हें रहते जिनके तुम साथ हो 

कह रहे हो आज़ाद हो तुम 

पर क्या सच में तुम आज़ाद हो। 


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