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Chandra Prakash Tripathi

Abstract

4  

Chandra Prakash Tripathi

Abstract

मैंने देखा है

मैंने देखा है

2 mins
47


वैराग्य मन्न में भी भावनाएं उमड़ आती हैं

मैंने रात अमावस्या में अंधेरे को करवट बदलते देखा है


भोर से रजनी तक आत्मा विरूद्ध काम करते हैं

मैंने तो यहां ज़िन्दगी को भी रोज दम तोड़ते देखा है


कलियुग में क्या पाप है क्या पुण्य है कोई बतलाए

मैंने तो गुनहगारों को संसद में कानून बनाते देखा है


छोटी से छोटी घटना पर मत्था टेकते हैं श्रद्धालु

मैंने तो पत्थर के मूरत में आस्था महकते देखा है


ग्रंथों वेदों कर्मो से प्रेम सद्भाव धर्म का मर्म बताया

मैंने राम रहीम के नाम पर धर्म को लहूलुहान होते देखा है


नाते रिश्ते प्रेम सम्मान को लोग भुला बैठे हैं

मैंने तो जन्म दायनी माता को वृद्धाश्रम में रोते देखा है


आश्चर्य है लोग साश्वत मृत्यु को भी झुठला देते हैं

मैंने तो मरकर अमर होते लोगो को भी यहां देखा है


गरीबी एक अभिशाप है जो विष की भांति पल पल डंसता

मैंने मांस की चद्दर ओढ़े कंकाल को हस्ते खेलते देखा है


भूख से बिलखती आंखों से उम्मीद ने भी नाता तोड़ लिया

मैंने बरसात में भी नम ना हुई आंखों को रोते भीगते देखा है


जाने किस उदासी में गमगीन है मनुष्य आज का

मैंने तो यहां खुशी को भी खुदखुशी करते देखा है


मती पर कुंडली मार बैठा है विषेला सर्प

मैंने तो यहां रखवालों पर भी पत्थर पड़ते देखा है


खोना पाना जीतना हारना ये तो मन की मिथ्या है

मैंने तो नेत्रहीन आंखो को संसार में खुशियां रंगते देखा है


कमजोरों दीन दुखियों का नित्य होता यहां सोषण दमन

मैंने तो छोटे से दीप को भी भवन जलाते देखा है


मदद तो क्या हक तक देने से कतराते यहां लोग

मैंने तो सूर्य को भी धूप चुराते देखा है


अधिकारों दायित्वों का हनन यहां सभी करते हैं

मैंने समाजसेवियों को नारी का भक्षण करते देखा है


हम देखते सहते सब कुछ यहां पर फिर भी

मैंने शोकसागर में डूबी आंखों में आशा को हंसते देखा है।


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