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Anju Singh

Abstract

4.4  

Anju Singh

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" ये कैसा बंधन है "

" ये कैसा बंधन है "

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130



जीवन में इंसान

चाहे अनचाहें

ना जानें कितने ही 

बंधनों में बंधा रहता है


कभी अपनों से नाता तोड़ता

औरों से नाता है जोड़ता

दिखावे का जीवन जीता है

बेबस लाचार हो जाता है

अनचाहें रिश्तो में बंध जाता है


एक स्त्री और पुरुष

जब जुड़ जाते हैं

घर- द्वार की गृहस्थी में

बंध जाते हैं वों 

जिम्मेदारियों के बंधन में


मां से एक शिशु का रिश्ता

स्नेह कोमल सा है यह बंधन

दोनों जुड़े हुए रहते

एक प्यारें अनमोल बंधन में


इंसान के जीवन में

सुख दु:ख आते जाते हैं

खुश दिखने के लिए वो

अपनें ऑंसू भी छुपातें हैं

कुछ ऐसे बंधन में बंध जाते हैं


कुछ ऐसा भी नाता है

प्यार और स्नेह से

मन से मन बंध जाता है

यह दोस्ती कहलाता है



चाहे कोई भी हो रिश्ता

यह तभी तक है निभता

जब वह मजबूत

 विश्वास की डोर से है बंधता


हर संगीत प्रेमी

कई धुनों को सजाते हैं

राग रंगों के कई धुन

सुरों में बंध जातें हैं

तब संगीत बन जाता है


आसमां का चाॅंद

कितना है खुबसूरत दीखता

एक अकेला मोहक चाॅंद

 झिलमिल तारों से बंधा रहता है


जीवन में सब का रिश्ता

बंधा हुआ है साॅंस से

जग में गरीबों का मन

बंधा हुआ है आस से


संसार के बंधनों से मुक्त हो 

इंसान योगी बन जाता है

एक बंधन टूटता है 

तो दूसरा बंध जाता है


कितनें ही बंधन बिना मतलब के

यूं ही बंध जाते हैं

बंधनों में बंध जाना

कभी प्यार की धुरी

और कभी मजबूरी है


इंसान मुक्त होना चाहता है

 फिर भी वह बंध जाता है

कहीं किसी बंधन में

शायद यही जीवन है


ना जाने कितने ही बंधनों में 

बंधी रहती है जिंदगी

इंसान मुक्त हो जाता है 

एक दिन साॅंसों के बंधन से।


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