कैसी लगती हो
कैसी लगती हो
क्या कहूँ कि तुम कैसी लगती हो,
आती हो जब ख्यालों में तो
वक्त का एक ठहरा हुआ पहर लगती हो..
पगली ये ज़ुल्फे मत खोला करो कतई ज़हर लगती हो,
और कल आयी थी चश्मा पहन कर मुझसे मिलने वो,
मैंने भी कह दिया इसमे तो ओर भी कहर लगती हो..
और मुझ बदनसीब को मिल गयी हो दुनिया-भर की सारी
खुशिया जैसे, खुदा कि बक्शी हुई वो मेहर लगती हो
और क्या कहूँ कि तुम कैसी लगती हो,
बारिश से आने वाली वो मिट्टी कि महक सी लगती हो
कल वो चिड़िया चहक रही थी मेरी छत पर,
मुझे तो उसकी चहक सी लगती हो
और जब इतना ख्याल रखती हो ना मेरा
तो मुझे मेरी माँ कि झलक सी लगती हो
सच तो ये है मैं तुम्हारा और तुम
मुझे अपनी सी लगती हो।

