कैसा है ये भटकाव
कैसा है ये भटकाव
न जाने कहाँ मनुज खो गया हैं।
ये खोने को अजब ही नशा हैं।।
मैं सोचूं, मैं छिप छिप कर रोऊँ।
कैसे मनुजता, खोज कर लाऊं।।
खो कर मनुजता, पतन ये हुआ है।
नोटों का सौदागर ही वो हुआ है।।
कल्पना की दुनिया, में वो है उलझा,
खुद से एक ब्रह्मांड उसने रचा हैं।।
माया की दुनिया की माया को पाने।
खुद से बनाये, यूं मिटने के ठिकाने।।
धरा पर कभी क्या किसका हुआ है।
जो भी हुआ, यही पर धरा रह गया हैं।।
ये कैसी बनी है, फैंटेसी की दुनिया।
जहाँ न किसी को कभी चैन मिला है।।
न भटके कभी, ये वचन भी दिया था।
जब मानव जन्म, हम सबने धरा था ।।
धरा पर आ कर यूं आयी समझदारी।
समझदारी बनी आज सब पर भारी।।
कहाँ जाऊं, कैसे मैं खोज कर लाऊं।
रे मानव!तुझे मैं कैसे अब जगाऊँ।।
बना तू दीवाना जिसको ही पाने।
मिटाए उसी ने रिश्ते सब पुराने।।
न प्रेम रहा है, न प्रेमी भी कोई।
वासना का बस धुंआ ही धुंआ हैं।।
संस्कृति खोई, सभ्यता से भटके।
न जाने पग कहाँ आ कर अटके।।
कैसे बने फिर देव मानवों की दुनिया।
ये प्रश्न आज मुझे, बड़ा सता रहा है ।।