काश! एक दर्पण ऐसा भी होता
काश! एक दर्पण ऐसा भी होता
काश! एक दर्पण ऐसा भी होता सच का प्रतिबिंब जिसमें नज़र आता,
फिर ना तो ख़्वाब टूटते किसी के और ना दिल किसी का ज़ख्मी होता,
जानता है ये दिल कोरी कल्पनाओं की कोई ज़मीं नहीं पर मानता नहीं,
सच लगने लगता है पानी का बुलबुला सा जब ज़ख्म नासूर बन जाता।
चल पड़े थे हम तो बेफिक्र होकर साथ उसके मोहब्बत की राहों में,
ज़िन्दगी लगने लगी थी बड़ी ही ख़ूबसूरत खुशियाँ भरकर बांहों में,
हर कदम साथ मिला हमसफ़र का तो सफ़र भी लगने लगा आसान,
पर किसे पता था ये सफ़र सुहाना लेकर जाएगा ग़म की पनाहों में।
चार कदम ही तो साथ चले थे बदले-बदले नज़र आने लगे अंदाज,
जिसे एक पल गवारा न था हमारे बिन वो हमें करने लगे नजरंदाज,
लम्हा-लम्हा बढ़ती जा रही थी दूरियाँ कम होने लगी मुलाकातें भी,
जो आँखों में था वो जुबां पर नहीं दिल में कोई तो पोशीदा था राज़।
एहसास तो था दिल को ढह रही है पल- पल मोहब्बत की इमारत,
पर लफ्जों में कैसे कहें उससे जिसे मान बैठे खुदा करते थे इबादत,
माना कद्र ना की उसने मोहब्बत की पर हमने वफा अपनी निभाई,
समझा लिया हमने भी अपने दिल को मानकर इसे अपनी किस्मत।
ना कुछ अपनी कही उसने न हमारी ही सुनी और रास्ते बदल लिए
जैसे कभी मिले ही न हों हम वो किसी अजनबी की तरह चल दिए,
ख़ामोशी भरी एक दर्द-ए-दास्तान बन कर रह गई अधूरी मोहब्बत,
बिखर गए ख़्वाब सारे ख़ामोश हुई मुलाकातें बुझ गए वादों के दीए।