जीवन का बोझ
जीवन का बोझ
बचपन बीता किताबों में
जवानी बीत रही हिसाबों में
पहले स्कूल का भारी बस्ता उठाया
अब काम के बोझ ने है दबाया।
बचपन से जवानी का सफर कर लिया
पर अपने लिए दो पल कब मैं जिया
घरवाले कहते थे पढ़ लो कुछ बन जाओगे
फिर जीवन में आराम ही आराम पाओगे।
नौकरी मे कुछ इस तरह मशगूल हुए
कि हम तो खुद को ही भूल गए
भागदौड़ भरी इस जिंदगी में
जाने कब अपने सपने पीछे छूट गए।
कभी कभी मैं सपनों में खुद को
दो धड़ो में बंटा पाता हूँ
एक हाथ में गेंद तो दूजे में
ऑफिस बैग उठाता हूँ।
मन के अंदर बैठा है जो बच्चा
उसको सबसे छिपाता हूँ
सूट बूट पहनके मैं
उसके अरमान दबाता हूँ।
बचपन और जवानी
जब गुत्थ जाती है आपस में
तब दोनों को बहला फुसलाकर
समझाता हूँ।
ले देके कहानी मेरी भी यही है कि
मैं भी घोड़ों की रेस में
शामिल हो जाता हूँ.....।
