झूठे दावे
झूठे दावे
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पढ़ती है स्त्री सशक्तिकरण पर
कहानियाँ और कविताएँ
आंदोलित करती है मन अपना
उठती है और खोलती है
अलमारी के पल्ले
झाँक कर खोजती है
एक धूल खाती हुई फाइल
झाड़ - पोंछ पलटती है
अपनी डिग्रियां
और दिलाती है याद
"खुद को खुद की काबिलियत "
करती है कुछ निर्णय
बढ़ती है आगे, पर
कदम पार नहीं कर पाते उस दहलीज को
जो सबके कहने के अनुसार पराये होते हैं
फिर भी वो उसे अपना समझ, हर दिन
'लक्ष्मी' के स्वागत के लिए रंगोली सजाती है।
कि थाम लेते हैं उसके हाथ घर की वो जगह
जहां की खुशबु, उसे कभी - कभी खुद भूखा
रह जाने के बावजूद सबके लिए उसे
"अन्नपूर्णा "बनाती है।
कि थाम लेते हैं उसका आँचल,
वो नन्ही उँगलियाँ जिसे
अपने 'रक्त 'से जन्म दे
अपना दूध पिला
वो "शक्तिस्वरूपा" बन जाती है।
कि फिर भी वो अगर बढ़ती है आगे तो
आँखों में उस 'बाबुल' का चेहरा
जिसने विदा करते हुए कहा था कि
'बेटा हमारी लाज रखना '
फिर उसे न चाहते हुए भी
'माँ सीता 'की याद दिलाती है|
"बेटी, बहू, पत्नि, माँ
इन किरदारों के आगे
इक स्त्री अपनी खुद की खुशी
कहाँ आगे रख पाती है!
बस इसलिए किताबों में लिखी बातें
पढ़, दो बूँद आँसू बहा, फिर
मुस्कराते हुए आँचल में अपना दर्द छुपा
वापस अपने कहे जाने वाले" पराए घर "की.
दिनचर्या निभाने में लौट आती है।