जब मैंने अपनाआप खोया।
जब मैंने अपनाआप खोया।
एक थी हसीना,
उसने था मेरा दिल छिना,
दिन-रात देखता था उसके सपने,
बलां सपने भी कभी सच होने लगे।
उसकी एक-एक बात का रखता था ख्याल,
अगर उसके बारे कोई उल्टा बोले,
हो जाता था नाराज़,
उसकी हर बात मुझे पसंद थी,
उसके साथ जिंदगी बताना,
मेरी ख्वाहिश थी।
लेकिन भाग्य से लड़ सकता कौन,
एक दिन किसी और के साथ चल दी वो,
मैं रह गया था हक्काबक्का,
मुझे कुछ और नहीं था सूझता।
बस मन में,
बार-बार यही विचार आता,
ऐसे कैसे कोई कर जाता,
और मन ईर्ष्या से भर जाता।
फिर मन को बहुत समझाया,
धीरे-धीरे मैं उस परिस्थिति से निकल पाया,
शायद वक्त बहुत बड़ी दवा,
इसके साथ हर जख्म भर जाता।
