लालो लाल, मोहब्बत का श्रंगार
लालो लाल, मोहब्बत का श्रंगार
वो लाल में थी,
बहुत जम रही थी,
सब उसको लुभा रहे थे,
कहीं हम भी कोने में खड़े थे।
आखिर उसने हमें देखा,
आंखों से आंखें चार हुई,
आंखों में ही बात हुई।
वो मेरी तरफ बढ़ी,
मैं उसकी तरफ लपका,
दोनों आधा आधा पार किए,
बिल्कुल सामने हुए,
धड़कने बढ़ गई,
कोई होश नहीं रहा,
कुछ कदम,
और आगे हुए,
अब धड़कनों से धड़कने,
जुड़ गई,
वो मेरी बांहों में थी,
मैं उसकी बांहों में था,
प्यार दोनों की नसों में,
बह रहा था।
मोहब्बत का जनून,
सर पर था।