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संजय असवाल

Abstract Fantasy

4.7  

संजय असवाल

Abstract Fantasy

जाने कहां खो गए वो दिन...!

जाने कहां खो गए वो दिन...!

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338


जाने कहां खो गए 

वो बचपन के दिन

वो सुकून, वो शरारतें

मस्ती भरे पलछिन।

जहां वक्त भी हमारे 

इशारों पे चलता था 

पल में रुकता 

पल में ठहरता था।

हम बांध लेते थे खुशियों को 

जब अपनी मुठ्ठी में 

गम का तब दूर दूर तक

वहां कोई नामोनिशान होता था।

तब ना हार का कोई गम था 

ना जीत में अभिमान,

मिलकर हम यार उठा देते थे 

पूरा आसमान।

हम यहां वहां 

बेखौफ फिरते थे

अपनी ही मस्ती में,

ना आज की चिंता थी 

ना कल का कोई गुमां होता था।

बारिश में भीगने का भी

तब अलग ही मजा था 

पतंगे लड़ाने में 

दिन हमारा गुजरता था।

पापा की डांट

मां की दुलार अच्छी लगती थी

दोस्तों संग मीठी तकरार 

दिल को भाती थी।

पल में रूठना 

पल में मान जाते थे

हम हवा संग अक्सर 

खुद ब खुद बह जाते थे ।

सर्दियों की छुट्टियों का 

बेसब्री से इंतजार रहता था

गांव जाने को ये दिल 

बेकरार रहता था।

नदियों में नहाना 

हिसर तोड़ के खाना 

लुका छिपी में 

झुरमुटों में छिप जाना 

सच वो पल बड़े हसीं होते थे 

जिंदगी के किताब के 

गढ़े किस्से होते थे ।

तब ना कपड़ों का शौक था

ना फैशन का दौर था

मां के हाथों की रोटी का 

स्वाद ही कुछ और था।

मन कभी भौंरों संग मंडराता 

कभी दूर तितलियों संग उड़ जाता 

कोहरे की चादर में लिपट कर 

ये जाने खुद कहाँ खो जाता।

दादी की कहानियों में 

बात ही कुछ अलग थी 

जुगनुओं की रोशनी में 

पूरी रात कटती थी।

जाने कहां गए वो दिन

जहां वक्त ठहर जाता था,

बेफिक्री में 

सारा दिन गुजर जाता था।


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