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मिली साहा

Abstract

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मिली साहा

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कोई दीवाना कहता है कोई पागल

कोई दीवाना कहता है कोई पागल

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अनजान सी राहों में दर-दर भटक रहा हूं,

खुद के वजूद को सड़कों पर ढूंढ रहा हूं।।


ना कोई हमसफ़र है ना मंजिल का पता,

जमीं पर रहकर आसमान तलाश रहा हूं।।


जिसको अपना माना वही अकेला कर गए,

फिर भी उनसे वफ़ा की उम्मीद लगा रहा हूं।।


कोई दीवाना कहता है, कोई पागल कहता है,

कैसे समझाऊं कौन सा अफसाना बुन रहा हूं।।


अब तो आईना भी मुझसे सवाल करने लगा है,

मैं खुद नहीं जानता कौन सा किरदार जी रहा हूं।।


वक्त के सागर में बहता जा रहा है मेरा किरदार,

मैं कौन हूं कहां हूं अपनी पहचान भी भूल रहा हूं।।


निराशा के बादल में ज़िंदगी जाने कहां छुप गई है,

जख्मों के चिराग में उम्मीद की रोशनी ढूंढ रहा हूं।।


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