ये किसका लिबास डाले रखा है तूने
ये किसका लिबास डाले रखा है तूने
रूह पर अपनी,
ये किसका लिबास डाले रखा है तूने।
हाथ क्यों खुलते नहीं तेरे,
क्यों मुट्ठी को बांधे रखा है तूने।
धागे तो कभी तेरे देह रूपी लिबास के खुलेंगे,
तो क्यों खुदको अंहकार से थामे रखा है तूने।
मैं श्रेष्ठ, मैं ज्ञानी, मैं अलग, मैं हूं दानी,
ये अंहकारी भ्रम क्यूं पाले रखा है तूने।
रूह पर अपनी,
ये किसका लिबास डाले रखा है तूने।
आग में जलना ही है तुझको,
मिट्टी में मिला ही है तुझको,
फिर यह लिबास भी मिट जायेगा,
तो जो भी सहेजा था तूने,
तेरे साथ कुछ ना जायेगा।
रूह पर अपनी,
ये किसका लिबास डाले रखा है तूने।
सिर्फ तेरा कर्म ही है
जो तेरी तकदीर लिख जायेगा।
तू हाथ बढ़ा किसी एक के लिये,
फिर देखना कि वो खुदा तुझपे
सौ रहमते बरसायेगा।
तू यहां मोहब्बत की नगरी बसाकर देख,,
जीव हो या इंसान सबपर
इंसानियत दिखाकर देख,
यहां भटके हुए काफिर को
तू मंजिल दिखा कर देख,
माना तेरा जीवन है परिश्रम से भर,
पर तू एक बार
भूखे को खाना खिलाकर देख।
रूह पर अपनी,
ये किसका लिबास डाले रखा है तूने।
बहुत हुआ तेरा भ्रम मे जीना,
अब रूह से अपनी ये झूठा लिबाज़ तू हटा।
की उस रौशनी का एक टुकड़ा,
आज भी तेरी रूह में है बसा।
तो रूह पर अपनी,
ये किसका लिबास डाले रखा है तूने ?
