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Devendra Singh

Abstract

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Devendra Singh

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जहां ख़ाली ख़ाली

जहां ख़ाली ख़ाली

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न ज़मी ख़ाली है न ये आसमां ख़ाली

बस बचा है मेरे दिल का मकां ख़ाली


तेरे जाने के बाद भीड़ तो बहुत आयी

उन्हें देते भी क्या, पड़ी है दुकां ख़ाली 


सुपुर्द-ए-ख़ाक करके बैठे हैं इज़्ज़त अपनी

बचा है मेरे ख़ज़ाने में अब गुमां ख़ाली


लफ्ज़ आते ही नहीं हैं हलक से बाहर अब

मचलती रहती है हमारी अब जुबां ख़ाली


भीड़ में वो नहीं दिखते तो घुटता है दम

'देव' खोजेंगे कहीं फिर से इक जहां ख़ाली।।


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