अनकही पीड़ा
अनकही पीड़ा
कभी-कभी मनोस्थिति बहुत विचित्र होती हैं,
जब ठहरता है मन
जैसे ठहरा हो सागर का पानी
बहुत उत्पात के बाद।
वह शांत भाव जिसका अनुभव
मात्र सुख ही नहीं दुख भी है,
जैसे जितनी सुख की अनुभूति
लहरों के बहाव को देखने में है
उतनी ही उसे शांत देखकर भी।
परन्तु अंतर इतना कि शांत होना जैसे
मन का एक द्वार खुला हो उदासीनता की ओर,
विचारों के भार का इतना बढ़ जाना
मन का बोझिल होना।
और इस तरह अनकही पीड़ा
पिघल कर बनाती हैं अपना रास्ता
ओर बरस जाती हैं अश्रु बनकर
इन कोमल नेत्रों से वही अश्रु उत्पन्न करते हैं
हलचल उस ठहरे हुए मन में।