जाने कहां गए वो दिन
जाने कहां गए वो दिन
लड़कपन की गलियों में सुकून भरे वह लम्हे
दूर दूर तक बाहें फैलाए थी मासूमियत की बस्ती
बिजलियों का चमकना बेचैन बादलों की गर्जना
रिमझिम बरसात में तैरती काग़ज़ की वह कश्ती
आज बहुत याद आए हैं अपने मतलबी यार सारे
काश! कोई लौटा दे अल्हड़ बचपन की वह मस्ती
खुले आसमां तले सजती थी हर शाम महफिल
फिर कोई नई शरारत यारों का लगता था जमघट
बगल में गागर पांवों में पायल की मधुर झनकार
अब ना गाँव की गोरियाँ ना गाँव का वह पनघट
बचपन क्या गुजरा बिखर गई वह सारी खुशियाँ
कमबख्त जवानी बन गई परेशानियों का मरघट
सावन के झूले भी रूठ कर जाने कहाँ चले गए
अमुआ के बाग़ में अब कोयल भी नहीं चहकती
पीली सरसों का धान की बालियों संग बतियाना
सुना है गाँव में सुबह की ताज़गी नहीं महकती
बालपन के यार जाने किस मोड़ पर बिछुड़ गए
बरगद की छांव तले बचपन की यादें नहीं बहकती
ना किताबों का बोझ था ना उलझनों का बस्ता
जिंदगी क्या थी जैसे खुले आकाश में उड़ती पतंग
ना थी कोई फ़िक्र ना ही थी कल की कोई परवाह
हर पल नई मस्ती हर पल दिल में थी नई उमंग
जिंदगी दौड़ रही थी चैन से बचपन की पटरी पर
जवानी के मौसम ने छीन लिए खुशियों की तरंग।
