इतने स्वार्थी क्यों हैं लोग..?
इतने स्वार्थी क्यों हैं लोग..?
अपना मतलब निकल जाने पर
अक्सर मुँह फेर लेते हैं लोग।
ऐसे कैसे अपना रवैया
बदल देते हैं लोग?
यही आश्चर्य की बात है।
ये आधुनिकता की
अंधाधुंध दौड़;
ये शाम-ओ-सहर
पेट की आग बुझाने की
अनसुलझी कशमकश...
ये महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में
डूबी हुई ज़िन्दगी...
ये एक-दूसरे को पीछे छोड़कर
आगे निकल जाने की
असंयमित प्रतिस्पर्धा...
केवल अपने स्वार्थ सिद्धि को
तवज्जोह देकर
किसी दूसरे की भलाई को
अनदेखा करने की
ये बुरी आदत
निस्संदेह आज के लोगों को
घोर संकीर्णता की
कंटकमय जीवन दशा से
गुज़रने को
अमादा कर देते हैं।
ये मानवीय संवेदनाओं को
अनछुआ कर देने की आदत
इस समाज की अवनति का
परोक्ष कारण है।
ऐसी स्वार्थपरता
आज के तथाकथित
अत्याधुनिक सुविधाओं से भरपूर
जीवन जीने को अभ्यस्त
कुछ रईसों की बात है,
जो अपना मतलब निकल जाने पर
(कभी अपना काम आनेवाले व्यक्ति को ज़्यादा तवज्जोह देने की दिखावेपन करनेवाले)
उस व्यक्ति की अहमियत ही
एक मच्छर की तरह मसलकर
रख देते हैं।
(ऐसा मैंने भी महसूस किया...
तब जाकर एहसास हुआ
कि मुझसे सिर्फ
तब तक ही
उनका मतलब था,
जब तक मैं
उनके संतान के शिक्षक का
दायित्व निभाया करता था...
पर जैसे ही उनके बच्चे
कक्षा दसवीं उत्तीर्ण होकर
बाहर निकल गए,
ये "सर जयंत"
एकाएक नकारा हो गया..!!!
इसीलिए आजकल मैं
किसी माया-मोह से परे ही
अपना दायित्व निभाया करता हूँ...।
क्योंकि माया-मोह इंसान को
हद से ज़्यादा कमज़ोर
और पराधीन कर देता है
और इंसान व्यर्थ ही
दूसरों से बेमतलब लगाव को
मानव-संपर्क समझ लेने की
भूल कर बैठता है...
और अंततः उसे
अपने गलती का एहसास होता है...)
जागो, इंसान जागो...!!!
यूँ सिर्फ स्वार्थ सिद्धि के पीछे मत भागा करो...।