इंतजार
इंतजार
परुष सा यह दिन रात
और लम्हें गुजर गये
विरावविहीन मुख
प्रशवसित सी रह गयी
कई कौमुदी निशा भी
गुजर गई
वातायन में खड़ी खड़ी
गुजार दी थी मैंने
कई वत्सर
आज किसी परिमल के लहर
गुजरे तो लगा
मेेरी इस कविता की
परिभाषा पूर्ण हुई
और मैं उस गुजरते हुये
पथिक के पाश में
बँँध कर आज
गन्तव्य पा लिया
