इंसानियत
इंसानियत
कहीं दूर कोने में एक परछाईं को देखा ,
स्तब्ध रह गई देख कर मैं उसकी रूप रेखा,
मैले कुचैले फटे कपड़ों में उदास तंगहाल थी,
मैनें पूछा कौन हो बोली मैं "इंसानियत" बदहाल थी..!
रोते हुये अश्रु कपोलों पर ढ़लकने से लगे,
बोलते हुये शुष्क अधर कॉंपने थरथराने लगे,
बोली मैं तिरस्कृत इस समाज से कहां जाऊंगी,
किसी को नहीं जरूरत मेरी घर मैं कहां बसाऊंगी..!
घूम घूम पथ विकल मेरे पांव में पड़ गये छाले,
एक ठिकाना ढूंढने को सर छुपाने को पड़ गये लाले,
ना जाने कब से गले से उतरा नहीं है सच्चाई का निवाला,
सारे मानव भ्रष्ट हो रहे पहन बुराई का जामा काला..!
मेरी बहन मासूमियत से बिछड़े जमाना हो गया,
भटकती हूं उम्मीदों को लिये यह हाल हमारा हो गया है ,
पाप कर्मों में लिप्त सारे ईमानदारी कहां अब बची है,
जो मुट्ठी भर रह गये हैं उनकी गत तो हमसे भी बुरी है..!
मैं देख रही थी उस पऱछाईं का मलिन चेहरा,
जिसकी उदास आंखों के चारों ओर पड़ा था काला घेरा,
तभी तंद्रा भंग हुई जब आ किसी ने मुझे झकझोरा,
कानों में गुंजित रूदन और याद आया फिर अपना मजबूर चेहरा..!!